श्री राधामाधव देवस्थानम्

Shri Radha Madhav Devasthanam

मंदिर परिसर में दिव्य विशाल पीपल वृक्ष है जो काफी प्राचीन समय से अपनी दिव्यता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण क्षेत्र की जनता में लोकप्रिय है। इस प्राचीन पीपल वृक्ष की ‘श्री लक्ष्मीनारायण पीपल’ के रूप में पूजा एवं सेवा की जाती है।
मंदिर परिसर में दिव्य विशाल पीपल वृक्ष है जो काफी प्राचीन समय से अपनी दिव्यता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण क्षेत्र की जनता में लोकप्रिय है। इस प्राचीन पीपल वृक्ष की ‘श्री लक्ष्मीनारायण पीपल’ के रूप में पूजा एवं सेवा की जाती है।

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औषधि स्नान से नवग्रह शांति

भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार सूर्यादि सभी ग्रह दुष्ट स्थान में बैठकर निश्चय ही मनुष्यों के अशुभ कर्मों के फलस्वरूप अनेक प्रकार से पीड़ित करते हैं। सूर्यादि ग्रहों की प्रतिकूलता में व्याधिग्रस्त रोगी को औषधि भी अनुकूल फल प्रदान नहीं करती है, क्योंकि औषधि के गुण प्रभाव-बल-वीर्य को ग्रह हरण कर लेते हैं। अतः पहले ग्रहों को अनुकूल करके बाद में चिकित्सा करनी चाहिए। महर्षि वशिष्ठ का कथन है कि दुःस्वप्न होने पर, मारक में अनिष्टकर कारण उपस्थित होने पर, ग्रहों की प्रतिकूलता में, जन्मराशि में, आठवें स्थान में, बृहस्पति, शनैश्चर, मंगल और विशेषकर सूर्य के रहने से धन की हानि, मृत्यु का भय एवं और भी सब संकट आकर मनुष्य को दुखित करते हैं। सूर्यादि ग्रहों की प्रतिकूल परिस्थिति में मनुष्य को चेष्टापूर्वक ग्रह शांति अवश्य करनी चाहिए। ग्रहों के दान, पूजा, व्रत एवं ग्रह औषधि स्नान द्वारा ग्रहों को प्रसन्न कर मनोनुकूल धन-धान्य का सुख, शरीर सुख, सौभाग्य की वृद्धि, ऐश्वर्य, आरोग्यता और दीर्घायु प्राप्त कर सकता है। सूर्यादि ग्रहों के अनिष्ट फल को शमन करने और शुभफल प्राप्ति के लिए औषधियों को जल में भिगोकर स्नान करने का विधान है। सूर्य की अनिष्टशांति के लिए केसर, कमलगट्टा, इलायची, देवदारू को जल में भिगोकर स्नान करना चाहिए। इस स्नान को रविवार के दिन करना चाहिए। चंद्रमा की अनिष्टशांति के लिए सोमवार के दिन पंचगव्य, स्फटिक, बिल्वपत्र, मोती, कमल और शंख से स्नान करना चाहिए। मंगल की अनिष्टशांति के लिए मंगलवार को चंदन, बिल्वपत्र, बैंगनमूल, प्रियंगु, जटामासी, लाल पुष्प, नागकेशर और जपापुष्प को जल में भिगोकर स्नान करना चाहिए। बुध की अनिष्टशांति के लिए बुधवार के दिन नागकेशर, अक्षत, गोरोचन, मधु और पंचगव्य को जल में भिगोकर स्नान करना चाहिए। बृहस्पति की अनिष्टशांति के लिए पीली सरसों, मालती, जूही के पुष्प और पत्ते से भिगोए जल से बृहस्पतिवार को स्नान करनी चाहिए। शुक्र की अनिष्टशांति के लिए शुक्रवार के दिन श्वेत कमल, मनःशिल, इलायची और केसर के जल से स्नान करना चाहिए। शनि की अनिष्टशांति के लिए शनिवार के दिन काले धान का लावा, सौंफ और काले सुरमा के जल से स्नान करना चाहिए। राहु की अनिष्टशांति के लिए शनिवार के दिन बिल्वपत्र, लाल चन्दन, कस्तूरी तथा दुर्वा के जल से स्नान करना चाहिए। केतु की अनिष्टशांति के लिए शनिवार के दिन लाल चन्दन, कस्तूरी, भेड़ का मूत्र, अनार और गुडूची के जल से स्नान स्नान करना चाहिए। इन स्नान औषधि में जितनी भी वस्तु उपस्थित हो उन्हीं के जल से स्नान करना चाहिए। इस प्रकार नवग्रह पीड़ा में औषधि स्नान के द्वारा अनिष्ट फल की शांति होती है तथा मनुष्य का अभ्युदय है।

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सूर्य संक्रांति के दान

भारत वर्ष आध्यात्म एवं संस्कृति प्रधान देश है। यहां धार्मिक जीवन व्रत, पर्व, उत्सव, दान, जप-तप, पूजन आदि सत्कर्मों एवं पूण्यार्जन के कार्यों से सदा पूरित रहा है। परार्थ के लिए उत्सर्ग एवं त्याग यहां की सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है। दाता के लिए विशेष कल्याणकारी तथा ग्रहीता के लिए परम उपयोगी होने से दान एक मुख्य कर्म है। दान करने से विद्या, ऐश्वर्य, पुत्रादि संतति, कीर्ति, यश, बल, देवलोक एवं अभिष्ट की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में वर्णित चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को महत्ता दी गई है तथा गृहस्थी को अपने सामथ्र्य अनुसार दान करने की अनिवार्यता बताई गई है। यूं तो दान नित्यकर्णीय कर्म है तथापि शास्त्रों में विभिन्न अवसरों पर दिए जाने वाले दानों का विशेष महत्व प्रतिपादित है। यथा-पर्वों पर ग्रहण काल में, तीर्थों में इत्यादि। संक्रांति काल में दिए जाने वाले दान भी उनमें से हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार मेष आदि द्वादश राशियों में सूर्य का प्रवेश करना ही ‘संक्रांति’ कहा जाता है। सूर्य के एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश काल संक्रांति काल कहलाता है। इस संक्रांति के समय दिए जाने वाले दानों का विशेष महत्व होता है। शास्त्रानुसार जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तो ग्रीष्म ऋतु का आरंभ होता है। इस काल में भेड़ दान करना चाहिए एवं शीतल जल, पौष्टिक पेय एवं छाता दान करना चाहिए। वृष राशि में सूर्य की संक्रांति होने पर गोदान अथवा गाय के मूल्य का दान करना चाहिए, गोवंश का दान श्रेष्ठ होता है। गोदान करने से मनुष्य विपत्ति का नाश करता है तथा दिव्यलोक प्राप्त करता है। मिथुन राशि में सूर्य का संक्रमण होने पर वस्त्र, अन्न एवं जल दान करना, फल दान करना चाहिए। इस काल ब्राम्हणों अथवा ब्राम्हण कन्याओं को तिल दान करने से देवी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। कर्क की संक्रांति होने पर घृत, धेनु या घी एवं गो अथवा गाय के मूल्य का दान करना श्रेष्कर होता है। इस समय अन्न, वस्त्र, शुद्द घी तथा गोदान करना चाहिए। इससे आयु, आरोग्य की प्राप्ति होती है। सिंह राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर सोर्ण या सोर्णा भूषण एवं छाता का दान करना चाहिए एवं विविध प्रकार के अन्न दान करना चाहिए, इससे विपत्ति का नाश, संकटनाश एवं अभिष्ट फल प्राप्त होता है। कन्या राशि में संक्रमण होने पर वस्त्र, गौ, या गाय का मूल्य एवं विविध औषधि का दान करना चाहिए। इस काल अनेक प्रकार के रोगों का प्रकोप होता है, अतः औषधि दान से आयु अरोग्यता प्राप्त होती है। तुला संक्रांति होने पर धान्य-दान एवं बीज का दान श्रेष्कर होता है। इस समय ऊनी वस्त्र एवं अग्नि यंत्रों का दान करना चाहिए। वृश्चिक राशि में सूर्य संक्रमण के समय वस्त्र एवं भूमि, ग्रह दान हितकर है। इस दान से विपत्ति का नाश एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। धनु संक्रांति के समय वस्त्र एवं वाहन दान करना चाहिए। वाहन दान करना उत्तम लोक की प्राप्ति में सहायक होता है। इस काल ब्राम्हणों को तिल, केसर, अग्नि, घी एवं दलिया दान करने से आयु आरोग्य प्राप्ति होती है एवं अग्नि तापने का ईंधन या यंत्र दान करने से शस्त्रु नष्ट होते हैं। मकर राशि में सूर्य के प्रवेश होने पर जूता, लकड़ी एवं अग्नि या अग्नि यंत्र दान करना चाहिए। इस काल गोदान या गाय के मूल्य का दान एवं तिल दान करना श्रेष्कर होता है। इस समय वस्त्र, तिल एवं गोवंश दान करने से रोगों का नाश होता है। सूर्य द्वारा कुंभ राशि में प्रवेश करने पर गोदान या गाय के मूल्य का दान, गाय के चारा का दान, जल दान, सुगंधित द्रव्य, तेल पात्र, काजल इत्यादि प्रसाधनों का दान करना चाहिए। मीन संक्रांति के अवसर पर स्नान आदि के पदार्थ, विभिन्न पुष्प का दान तथा पुष्प मालाओं का दान, इत्र का दान, सुगंधित धूप का दान एवं भूमि दान करना चाहिए। सभी प्रकार के दानों के साथ यथाशक्ति दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए। उपर्युक्त दान संक्रांति काल में अति शुभ फलदायी कहे गए हैं। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार के दान करने से मनुष्य आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, सम्पन्त्ति एवं विपत्ति का नाश कर अभिष्ट फल को प्राप्त कर अपना जीवन धन्य बनाते हैं।

गुरूजी – वैशाख मास-min

वैशाख मास महिमा

भारतीय सनातन धर्मानुसार सभी मासों का किसी न किसी प्रकार से उनकी महिमा का वर्णन किया गया है। सभी मास कुछ विशेष कृत्यों के द्वारा परम पुण्य फल प्राप्त करने वाले होते हैं। इसी प्रकार सभी मासों में वैशाख के समान कोई मास नहीं है। वैशाख मास अपने श्रेष्ठ कारणों से उत्तम मास है। वैशाख मास को शास्त्रानुसार ब्रम्हा जी ने सब मासों में उत्तम सिद्ध किया है। यह मास माता की भांति सब जीवों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। धर्म, यज्ञ, क्रिया और तपस्या का सार है। सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित है। जैसे विद्याओं में वेद विद्या, मंत्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राम्हण, प्रिय वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगा जी, तेजों में सूर्य, अस्त्र-शस्त्रों में चक्र, धातुओं में सुवर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि उत्तम है, उसी प्रकार धर्म के साधनभूत महीनों में वैशाख मास सबसे उत्तम है। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला इसके समान दूसरा कोई मास नहीं है। जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान विष्णु निरंतर प्रीति करते हैं। पाप तभी तक गरजते हैं, जब तक जीव वैशाख मास में प्रातः काल जल में स्नान नहीं करता। वैशाख के महीने में सब तीर्थ, देवता तीर्थ के अतिरिक्त बाहर के जल में भी सदैव स्थिर रहते हैं। भगवान विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिए वे सूर्योदय से लेकर एक घंटे के भीतर वहां उपस्थित रहते हैं। वैशाख मास सर्वश्रेष्ठ मास है और शेषशाची भगवान विष्णु को सदा प्रिय है। सब दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थों में जो फल होता है, उसी को मनुष्य वैशाख मास में केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। जो जलदान में असमर्थ है, ऐसे ऐश्वर्य की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को उचित है कि वह दूसरे को जागरुक करे, दूसरे को जलदान की महिमा समझाए। यह सब दानों से बढ़ कर हितकारी है। जो मनुष्य वैशाख मास में मार्ग पर यात्रियों के लिए प्याऊ लगाता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। प्याऊ देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को अत्यंत प्रीति देने वाला है। जिसने प्याऊ लगवाकर रास्ते के थके-मांदे मनुष्यों को संतुष्ट किया है, उसने ब्रम्हा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को संतुष्ट कर लिया है। वैशाख मास में जल की इच्छा रखने वाले को जल, छाया चाहने वाले को छाया और पंखे की इच्छा रखने वाले को पंखा दान करना चाहिए। जो प्यास से पीड़ित महात्मा पुरूष के लिए शीतल जल प्रदान करता है, वह उतने ही मात्र से दस हजार राजसूय यज्ञों का पुण्य फल पाता है। धूप और परिश्रम से पीड़ित मनुष्यों के लिए ब्राम्हण के लिए जो पंखा डुलाकर हवा करता है, वह उतने से ही मुक्त हो भगवान विष्णु सायुज्य प्राप्त कर लेता है। जो शुद्ध चित से ताड़ का पंखा देता है, वह सब पापों का नाश करके ब्रम्हलोक को जाता है। जो विष्णुप्रिय वैशाख मास में पादुका (चप्पल, जूता) दान करता है, वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक में जाता है। जो मार्ग में अनाथों के ठहरने के लिए विश्रामशाला बनवाता है, उसके पुण्य फल का वर्णन नहीं किया जा सकता है। मध्यान्ह में आए हुए अतिथि, ब्राम्हण, भूखे को यदि कोई भोजन दे तो उसका फल अनन्त होता है। स्कन्द पुराण के अनुसार, वैशाख मास व्रत में तेल लगाना, दिन में सोना, कांसे में भोजन करना, पलंग पर सोना निषिद्ध पदार्थ खाना, मद्य-मांस व्यसनादि करना, बार-बार भोजन करना तथा रात में खाना त्याग देना चाहिए। जो वैशाख में व्रत का पालन करने वाला मनुष्य कमल के पत्ते पर भोजन करता है, वह सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक में जाता है। जो विष्णु भक्त पुरुष वैशाख मास में नदी में स्नान करता है, वह तीन जन्मों के पापों से निश्चय ही मुक्त हो जाता है। जो सूर्योदय के समय किसी समुद्रगामिनी नदी में वैशाख स्नान करता है, वह सात जन्मों के पापों से तत्काल छूट जाता है। सूर्यदेव के मेष राशि में आने पर भगवान विष्णु के उद्देश्य से वैशाख मास स्नान का व्रत लेना चाहिए। स्नान के उपरांत भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। वैशाख मास के देवता मधुसूदन भगवान हैं। उनसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए- ————————————————————————————————————————————————————————– “हे मधुसूदन! हे देवेश्वर माधव! मैं मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर वैशाख मास में प्रातः स्नान करुंगा, आप इसे विधि-विधान पूर्ण कीजिए।” इस प्रकार प्रार्थना कर व्रत धारण करना चाहिए। मात्र वैशाख मास के व्रत व दान करके मनुष्य अक्षय पुष्प को प्राप्त करता है। —————————————————————————————————————————————————————————

गुरू पूर्णिमा

गुरूजी – महिमा

बिल्ववृक्ष महिमा लोकेन्द्र चतुर्वेदी भारतीय सनातन धर्म में बिल्ववृक्ष की विशेष महिमा बताई गई है। इसको देव वृक्ष की संज्ञा प्राप्त है। इस वृक्ष को श्रीफल वृक्ष भी कहते हैं। यह भगवान शंकर को अत्यंत प्रिय वृक्ष है एवं उनकी प्रसन्नता प्राप्त कराने वाला वृक्ष है। बिल्व वृक्ष के बिल्वपत्र से भगवान शंकर की प्रसन्नता हेतु पूजा-अर्चना की जाती है। वृहद् धर्म पुराण के अनुसार बिल्ववृक्ष की महिमा बताते हुए देवी तथा शंकर के संवाद का वर्णन किया गया है। पूर्व काल में देवी लक्ष्मी के द्वारा भगवान शंकर की पूजा अर्चना का व्रत लिया गया था। देवी लक्ष्मी प्रतिदिन एक हजार कमल पुष्प भगवान शंकर को अर्पित कर पूजा किया करती थीं। एक समय प्रभु शंकर द्वारा परीक्षा के कारण देवी लक्ष्मी के कमल पुष्पों में से दो कमल कम हो गए। दो कमल पुष्पों के कम होने से देवी लक्ष्मी को बड़ा क्षोभ हुआ, उन्होंने अपने शरीर के अंग को काटकर भगवान शंकर पर अर्पित कर दिया था। इससे उनकी शिव भक्ति से प्रसन्न हो कर भगवान शंकर ने उनके कटे अंग को पुनः स्वस्थ कर दिया एवं वरदान प्रदान किया कि तुमने जो अंग काटकर मेरे स्वर्णिम लिंग पर रखा है, वह पृथ्वी पर तुम्हारी भक्ति का मूर्त स्वरूप ‘श्रीफल’ नामक एक पवित्र वृक्ष उत्पन्न हो कर धरती पर तब तक रहेगा, जब तक यहां सूर्य चंद्र की स्थिति रहेगी। हे लक्ष्मी! यह वृक्ष मेरे लिए परम प्रीतिजनक है तथा उससे मेरी पूजा होगी। इसमें तनिक संदेह नहीं है, जैसे त्रिपुंड तथा गंगाजल मुझे अत्यंत प्रिय है, तदनरूप श्रीफल (विल्ववृक्ष) वृक्ष का त्रिपत्र भी मुझे अत्यन्त प्रिय होगा। यह श्रीफल वृक्ष वैशाख मास के शुक्लपक्ष में उत्पन्न हुआ था। उसके उत्पन्न होने पर भगवान ब्रम्हा, नारायण तथा इंद्रादि देवता तथा सभी देवपत्नीगण वहां आए तथा त्रिपत्रयुक्त अपने तेज से दैदीप्यमान शिव रूपी इस वृक्ष का उन सभी ने दर्शन प्राप्त किया। दर्शन करके सभी इसे प्रणाम करके तथा उसमें जलसिंचन करते हुए अत्यन्त सुखपूर्वक वहां निवास करने लगे। तदनन्तर भगवान विष्णु ने उसकी रक्षा हेतु कहा कि इस तरुवर का बिल्व, मालूर, श्रीफल, शाण्डिल्य, शैलूष, शिव, पुण्य, शिवप्रिय, देवावास, तीर्थपद, पापहन, कमलच्छद, जय, विजय, विष्णु, त्रिनयन, वर, धूम्राक्ष, शुक्लवर्ण, संयमी तथा श्राद्धदेव यह 21 नाम होगा।इसके उध्र्व-अधः तथा चारों ओर सौ धनुष पर्यन्त का स्थान तीर्थ होगा। इसका उध्र्वपत्र शंकर, वामपत्र ब्रम्हा तथा दक्षिण पत्र मैं विष्णु हूं। जो इसे पैरों से छुएगा उसकी लक्ष्मी नष्ट होगी। इसका मात्र एक पत्ता भगवान शंकर को प्रदान करने से एक हजार कमल प्रभु को चढ़ाने का फल लाभ होगा। भगवान विष्णु कहते हैं कि इस बिल्ववृक्ष का दर्शन-स्पर्श इसके स्थान की साफ-सफाई करने से पूजन, पत्रचयन करने से शिवदर्शन का फल प्राप्त करेगा। जो बिल्ववृक्ष को साष्टांग प्रणाम करता है, वह मेरा (विष्णु) परमप्रिय वैष्णव होगा।। सायंकाल, मध्यकाल, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा के दिन बिल्वपत्र तोड़ना या चयन करना वर्जित है। बिल्ववृक्ष पर व्यर्थ नहीं चढ़ना चाहिए और न ही व्यर्थ में शाखा तोड़नी चाहिए। बिल्ववत्र 6 वर्ष तक बासी नहीं होती। इसके द्वारा सूर्य तथा गणपति की पूजा नहीं करनी चाहिए, बाकी सभी देवता की पूजा कर सकते हैं। जहां बिल्ववृक्ष के वन हैं, वह स्थान काशी के समान है। जहां पांच बिल्ववृक्ष हैं वहां स्वयं महेश्वर विद्यमान हैं। जहां एक भी बिल्ववृक्ष है, वहां भगवान शंकर तथा विष्णु स्थिर रहते हैं।जिस गृहस्थ के बाग में अपने आप ईशान कोण में बिल्ववृक्ष उत्पन्न होता है, वहां कभी विपत्ति नहीं आती। वाटिका के पूर्व में उत्पन्न विल्ववृक्ष सुखदायक होता है। दक्षिण में उत्पन्न बिल्ववृक्ष भयनाशक तथा पश्चिम में उगा बिल्ववृक्ष सन्तान-संततिवर्धक होता है। यदि श्मशान, नदी तीर अथवा वन में हो तब वह स्थान सिद्धपीठ होता है। कोई गृहस्थ इस वृक्ष को अपने प्रांगण के मध्य कभी स्थापित न करें। यदि अपने आप उग आए तो उसकी अर्चना भगवान शंकर की तरह करनी चाहिए।चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ तथा आषाढ़ मास में भगवान शंकर को मात्र एक बिल्ववृक्ष प्रदान करने से एक लाख गोदान का फल मिलता है। जो मानव मध्यदिन में बिल्ववृक्ष की प्रदिक्षिणा करता है, उसे तीन बार सुमेरू पर्वत प्रदक्षिणा का फल प्राप्त होता है। जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित होता है। जो पुण्यात्मा व्यक्ति चैत्रादि चार मास में बिल्ववृक्ष की सिंचाई करता है, उसके पितृगण भी इसी वृक्ष की तरह अभिषिक्त हो जाते हैं।

नवग्रह पूजा एवं हवन (नवग्रह शांति पूजा)

नवग्रह – गुरूजी

नवग्रह के दान लोकेन्द्र चतुर्वेदी ज्योतिष शास्त्र द्वारा सभी मानवों का जीवन प्रभावित होता है। वस्तुतः ज्योतिष में वर्णित ग्रह योग सम्पूर्ण मानव जीवन में महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नवग्रहों की शुभाशुभ स्थिति से मानव जीवन के क्रिया-कलाप संचालित होते हैं। नवग्रह हमारे पूर्व जन्मों के शुभाशुभ कर्मों के फलों को अपनी शुभ-अशुभ वर्तमान संचरण के द्वारा प्रदान करते हैं। जीवन का सम्पूर्ण सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय आदि नवग्रहों पर आधारित है। इसका कारण 27 नक्षत्रों और 12 राशियों पर ये ग्रह सतत भ्रमण करते रहते हैं तथा सभी के पूर्वजन्मों के कर्मों के साक्षी हैं। ग्रहों की अनुकूल परिस्थिति होने पर वह मनुष्य द्वारा किए गए शुभ कर्मों के फलों को प्रदान करते हैं, जिससे सुख की अनुभूति होती है एवं प्रतिकूल परिस्थिति होने पर वह मनुष्य द्वारा किए गए अशुभ कर्मों के फलों को प्रदान करते हैं, जिससे मनुष्य दुःखानुभूति प्राप्त करता है। सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु, ये नौ ग्रह कहलाते हैं। ज्योतिष शास्त्रानुसार जन्म कुण्डली में या वर्ष कुण्डली में या ग्रहगोचर संचरण आदि में कोई ग्रह प्रतिकूल स्थिति में हो तो अरिष्ट-निवारण के लिए ग्रहों के निमित्त दान करने की विधि है। ज्योतिष शास्त्रानुसार इन ग्रहों को ब्रह्म जी ने वरदान दिया था कि जो इनके प्रतिकूल स्थान के संचरण में जो ग्रहों की प्रसन्नता के निमित्त दान एवं ग्रहों की पूजा करेगा। ये नवग्रह उसे पूजित व सम्मानित बनाएंगे एवं अनिष्ट की शांति करेंगे। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों के आनुकूल्य-प्राप्ति हेतु विभिन्न प्रकार के दान बताए गए हैं। सूर्य सभी ग्रहों का राजा है एवं सभी ग्रहों में बली है। यदि सूर्य प्रतिकूल स्थिति में हो तो ‘गोदान’ या गाय के मूल्य का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त लाल-पीले रंग का वस्त्र, गुड़, स्वर्ण, तांबा का पात्र, माणिक्य रत्न, गेहूं या गेहूं का आटा, लाल कम्बल, मसूर की दाल का ब्राह्मण, मंदिर या ब्राह्मण ज्योतिषी को दान करना चाहिए। चंद्रमा की अनुकूलता के लिए श्रीखण्ड, चंदन, शंख का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त शुद्ध घी से भरा कलश, श्वेत वस्त्र, दही, मोती, स्वर्ण तथा चांदी के बर्तन, आभूषण का दान करना चाहिए। मंगल की शांति के लिए बैल को चारा दान करना चाहिए तथा लाल वस्त्र, लाल पुष्प माला, ब्राह्मण को भोजन दान करना चाहिए तथा गुड़, स्वर्ण, तांबे का बर्तन एवं रक्त चंदन का दान करना चाहिए। बुध की अनुकूलता के लिए विशेष रूप से स्वर्ण के आभूषण या स्वर्ण के पात्र का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त हरा वस्त्र, मूंग की दाल, पन्ना रत्न, स्वर्ण पात्र में शुद्ध घी, कांसे का बर्तन, पुष्प, फल का दान करना चाहिए। बृहस्पति की शान्ति के लिए विशेष रूप में पीले वस्त्र का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्वर्ण आभूषण, शहद, पीला धान्य तथा चने की दाल, नमक, पीले पुष्प, खांड चीनी, हल्दी, धार्मिक पुस्तक, पुखराज रत्न, भूमि एवं छाता का दान करना चाहिए। शुक्र की शांति के लिए विशेष रूप से रेशमी श्वेत वस्त्र, श्वेत घोड़े का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त चावल, शुद्ध घी, स्वर्ण आभूषण, रुपया-पैसा (धन), हीरा-रत्न, सुगंधित द्रव्य पदार्थ, कपूर, मिश्री, दही एवं बछड़े सहित गौ का दान अथवा गौ के मूल्य का दान करना चाहिए। शनि की स्थिति प्रतिकूल हो तो विशेष रूप से काले रंग की गाय अथवा काले कम्बल या वस्त्र के साथ गाय के मूल्य का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त समस्त प्रकार के तेल, नीला वस्त्र, नीलम रत्न, स्टील के बर्तन, लोहे की वस्तु, नारियल, उड़द, काला तिल, छाता, जूता-चप्पल का दान दक्षिणा के साथ करना चाहिए। राहु ग्रह के दोष शांति हेतु विशेष रूप से लोहे या स्टील के बर्तन एवं वस्तु का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्वर्ण आभूषण, काले तिल से युक्त तांबे का बर्तन, काला कम्बल, गोमेद रत्न का दान दक्षिणा के साथ करना चाहिए। केतु ग्रह की शांति हेतु विशेष रूप से काले तिल युक्त ऊनी वस्त्र का दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्टील एवं लोहे की वस्तु, छाता, तेल, लहसुनिया रत्न, कस्तूरी एवं उड़द का दान दक्षिणा सहित करना चाहिए। इस प्रकार योग्य ज्योतिषी के परामर्श से कार्य सम्पन्न करना चाहिए। दान देते समय उसके साथ दक्षिणा भी अवश्य देनी चाहिए, तभी दान का विशेष फल प्राप्त होता है। नवग्रहों के निमित्त दान सामान्यतः उस ग्रह के वार में दिन में किया जाता है, यथा सूर्य हेतु रविवार को चंद्रमा हेतु सोमवार को इत्यादि। इस प्रकार नवग्रहों के निमित्त दिए जाने वाले दान से पापों का शमन होता है तथा अरिष्टों की शांति होती है। नवग्रहों के निमित्त दान से पुण्य प्राप्त होता है तथा सुख, शांति, अरोग्यता, ऐश्वर्य, सम्पत्ति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

श्री सत्यनारायण कथा श्रवण

विवाह पंचमी

श्री विवाह पंचमी महिमा मार्गशीर्ष की पंचमी तिथि को त्रेतायुग में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का विवाह जनकपुर में संपन्न हुआ था। सीता स्वयंवर में भगवान श्रीराम के द्वारा शिव धनुष भंग करने के उपरान्त विदेह राज जनक जी के द्वारा अयोध्यापुरी दूत भेजने पर महाराज श्री दशरथ जी के पुत्र श्री भरत जी एवं श्री शत्रुहन जी के साथ बारात लेकर जनकपुर पधारते हैं। इसके अनन्तर विवाह की विधि पंचमी तिथि को सम्पन्न होती है। इसलिए अयोध्या तथा जनकपुर में विवाह पंचमी का महोत्सव बड़े समारोह से प्रत्येक मंदिर में मनाया जाता है। भक्तगण भगवान की बारात निकालते हैं तथा भगवान की प्रतिमाओं द्वारा रात्रि में विधिपूर्वक विवाह कराते हैं। देश के विभिन्न भागों में श्रीरामभक्त यह महोत्सव अपने.अपने ढंग से आनन्द और उल्लासपूर्वक मनाते हैं। पुराणानुसार मार्ग शीर्ष शुक्लपक्ष पंचमी तिथि को सरयू स्नानए गंगा स्नान अथवा किसी भी पवित्र नदी में स्नान का करोड़ गुना फल प्राप्त होता है एवं श्री भगवान की प्रसन्नता के लिए किया जाने वाला दान करोड़ गुना फल प्रदान करता है। इस तिथि को स्नान दान करने वाले को भगवान की कृपा स्वरूप मनोरथ सिद्धि एवं भक्ति प्राप्त होती है। इस दिन लोग भगवान श्रीराम और देवी सीता के विवाह की खुशी में व्रत और पूजन करते हैं। इस दिन भगवान राम और देवी सीता का विवाह भी किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन यदि अविवाहित लोग भगवान का विवाह करें, तो उन्हें मनचाहा जीवनसाथी मिलता है। वहीं, विवाहित लोगों को जीवन में सुख-शांति और प्रेम की प्राप्ति होती है। बावजूद इसके लोग विवाह पंचमी पर अपनी कन्या या पुत्र का विवाह नहीं करते। जिस शुभ अवसर पर भगवान राम और देवी सीता का विवाह हुआ था, उस दिन विवाह न करने के पीछे एक बड़ा कारण माना गया है। यही वजह है कि लोग इस दिन पूजा-पाठ और व्रत तो उत्साह के साथ करते हैं, लेकिन शादी नहीं। इसके पीछे क्या कारण है, आइए आपको बताएं। विवाह पंचमी पर वैसे तो सभी शादियां करने से बचते हैं, लेकिन मिथिलांचल और नेपाल में इस दिन विवाह विशेष रूप से वर्जित माना गया है। असल में देवी सीता मिथिला की बेटी कही जाती हैं और देवी सीता ने विवाह के बाद जितने कष्ट झेले उसके कारण ही मिथिलावासी अपनी बेटियों की शादी इस दिन करने से बचते हैं। देवी सीता ने विवाह के कुछ दिन बाद ही 14 साल का वनवास किया और फिर रावण के हरण के कारण भगवान श्रीराम से दूरी का वियोग सहा। इतना ही नहीं वनवास समाप्ति के बाद जब भगवान राम वापस आयोध्या पहुंचे तो भी देवी सीता ने महारानी का सुख नहीं भोगा। भगवान श्रीराम ने गर्भवती देवी सीता का परित्याग कर दिया था। सीता राम चरित अति पावन । मधुर सरस अरु अति मनभावन ॥ पुनि पुनि कितनेहू सुने सुनाये । हिय की प्यास बुझत न बुझाये॥ विवाह पंचमी के शुभ अवसर पर हार्दिक बधाई। इस तरह राजकुमारी सीता को महारानी का सुख कभी नहीं मिला। देवी ने अपना वैवाहिक जीवन बेहद कष्टमय गुजारा था और यही कारण है कि विवाह पंचमी पर लोग विवाह करने से बचते हैं। भृगु संहिता में इस दिन को विवाह के लिए अबूझ मुहूर्त के रुप में बताया गया है। क्योंकि, जब भगवान राम को राजा बनने का सौभाग्य मिलने वाला तो उन्हें वनवास हो गया और जब लौट कर राज बने तो देवी सीता को वापस आश्रम में अपने दिन काटने पड़े। इस तरह से भगवान राम और देवी सीता ने कभी भी वैवाहिक सुख नहीं उठाया।  यही कारण है कि अबूझ मुहूर्त होने के बाद भी विवाह पंचमी के दिन लोग अपनी बेटियों की शादी नहीं करते हैं। यही कारण है कि विवाह पंचमी की कथा में भगवान श्रीराम और देवी सीता के विवाह की कथा भी विवाह के साथ ही खत्म हो जाती है। विवाह के बाद भगवान के कष्टमय जीवन का जिक्र कथा में नहीं किया गया है। इस शुभ दिन सुखांत करके ही कथा का समापन कर दिया जाता है।

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